Thursday, September 23, 2010

रंगमंच से गपमंच की ओर

फट्टर साहब को बातें करने वो चस्का था कि औरतें भी शरमा जाएं। शाम होते ही अपने घर में बने दफ्तर पहुंचते और कतिपय मित्रों का इंतजार करते। पेशे से वकील थे इसलिए दिन कोर्ट में बीतता और शाम दफ्तर में। उनका दफ्तर बातों का अड्डा ज्यादा नजर आता था। मित्रों के साथ कैरम, बीड़ी, सिगरेट, शराब और बातें। ढेर सारी बातें। बस उन्हें और कुछ नहीं चाहिए था।

फट्टर साहब शौकिया तौर पर रंगमंच भी करते थे। रंगमंच के अनुभवों को अपने मित्रों को सुनाना और पीठ पीछे चुगलियां करना उन्हें खूब भाता था और यदि इस दौरान मदिरा के प्याले भी आपस में टकरा जाएं तो क्या कहने। मानों उस समय तो धरती पर सबसे खुश किस्मत इंसान फट्टर साहब ही होते थे। मदिरा के नशे में चूर फट्टर साहब बात करते तो हाथों को ऐसे हिलाते जैसे कोई डायलॉग बोल रहे हों। डायलॉग खत्म होने पर जब उनके मित्रों के मुख से "वाह भाई साहब क्या बात है" निकलता तो फट्टर साहब के चेहरे पर वो नूर झलकता जैसे उन्होंने कोई तीर मार दिया हो। मदिरा की महफिल को सजाने का कार्य भी वह निराले अंदाज करते। प्रत्येक गपमंच के सदस्य से कुछ पैसे वसूलते और खुद भी पैसे मिलाकर मदिरा मंगवाते। यदि कोई पीने से इन्कार करता तो उसे पीने के लिए प्रेरित करते।

"तुम्हारा पब्लिक रिलेशन बहुत कमजोर है। उसे सुधारने के लिए तुम्हें पीनी चाहिए।"  अभिनय में भावों की तीव्रता के लिए तु्म्हें पीकर रिहर्सल करनी चाहिए।"  इन वाक्यों द्वारा वह शराब पीने के फायदे समझाते।

बातें करने का स्वाद उन पर इस कदर भारी था कि रिहर्सल के लिए आए कलाकारों भी उन्हें सुध न रहती। ये वही कलाकार होते थे जो रंगकर्मी बनने की इच्छा से आते थे। परन्तु समय बीतने के साथ-साथ समझ  जाते कि माजरा कुछ और ही है। यहां रंगमंच नहीं गपमंच था जिसे फट्टर साहब ने बड़े प्यार से अपने हाथों से तैयार किया था।

ऐसा नहीं था कि वे सिर्फ बकबाजी में ही लगे रहते थे। उन्होंने कुछ नाटकों का सफलतापूर्वक मंचन किया था। वह स्वयं मंच पर अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन कर चुके थे। परंतु समस्या यह थी कि वह गपमंच से पीछा नहीं छुड़ा पा रहे थे और न ही छुड़ाना चाहते थे। उनकी कोशिश रहती थी कि कलाकारों को भी गपमंच की टोली में शामिल किया जाए। परन्तु बहुधा ऐसा न हो पाता था और यह बात उन्हें नागवार गुज़रती थी। जो गपमंच की टोली में शामिल न होता वह उन्हें फूटी आंख न सुहाता था। परिणामस्वरूप नए कलाकार आते और पुराने होकर लौट जाते तथा फट्टर साहब उनकी चुगलियों में लग जाते।

गपमंच को ज़िंदा रखने के लिए फट्टर साहब हर समय नई भर्ती की कोशिश में रहते। इसीलिए कैरम खेलते समय जब कोई स्ट्राईकर से शॉट लगाता तो उसकी ऐसी तारीफ करते कि नया नौसिखिया खिलाड़ी भी खुद को चैंपियन समझने की भूल कर बैठता।

फट्टर साहब को सलाहें देने में आनंद की अनुभूति होती थी। इसलिए मौका मिलते ही सलाह देने में चूकते नहीं थे। वे हर वक्त इसी कोशिश में रहते कि सामने वाले को किसी तरह प्रभावित किया जाए इसीलिए अपनी बातों को तहजीब की ऐसा तड़का लगाते जैसे शहर के सबसे बड़े भद्रपुरूष वे ही हों। परंतु यह भद्रता का मात्र ढोंग होता था। वास्तव में वह फायदा देखकर ही इज्जत से बात किया करते थे। वरना अंट-शंट बकने में वह आगे रहते थे। सबसे अधिक इज्जत वह मदिरा पिलाने वाले को ही देते थे। यदि कोई उन्हें मुफ्त की मदिरा पिला देता तो वह उनके लिए बीवी से बढकर प्रिय हो जाता। फिर तो हर शाम उन्हें अपने उसी सच्चे दोस्त की याद सताती।

गपमंच से गैरहाजिर रहने वालों से वह नाराज रहते और लौट आने पर किसी रूठी हुई प्रेमिका की तरह की पेश आते। लेकिन मनाए जाने पर मान भी जाते। पर उन्हें मनाना आसान नहीं होता था। चापलूसी करने और दारू पिलाने पर ही गुस्सा थूकते थे।

यहां इस बात पर गौर करना बहुत ही जरूरी है कि जब कोई गपमंच को अलविदा कहता तो फट्टर साहब इसे किसी धोखे से कम नहीं समझते और प्रतिशोध की अग्नि में जल उठते। फिर तो कई दिनों तक उनकी शाम उस धोखेबाज़ की बुराईयों में ही बीतती थी। फट्टर साहब का सफर आज भी जारी है। रंगमंच से गपमंच की ओर। इसलिए कभी आप उनसे मिलने जाएं तो ध्यान रखियेगा वो धोखेबाज आप भी हो सकते हैं।

(सत्य घटनाओं पर आधारित)

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