Saturday, December 4, 2010

बातों में जीतिए अवार्ड...

                                            अगर कोई आपको बातों ही बातों में फिल्म फेयर अवार्ड दिलवा दे तो आप क्या करेंगे। जी हां, मैं सच कह रहा हूं। एक शख्स ऐसा भी है जो यह काम बड़ी चतुराई से कर सकता है। बात कर रहा हूं जौनी चौहान की।  जौनी चौहान वो शख्स है जो बातों में ही इन्सान को इतनी ऊचांईयों पर पहुंचा देते हैं कि बेचारे का नीचे आना मुश्किल हो जाता है। आप सोच रहे होंगे कि आखिर ये क्या बला है। आप सही सोच रहे है। वह एक बला ही हैं। लेकिन बहुत कम लोगों को ही पता चल पाता है कि वो एक बला हैं।
     जौनी चौहान का पेशा क्या है ये कोई समझ ही नहीं पाया, लेकिन वह अपना पेशा फिल्में बनाना और नाटक करना समझते हैं। वो फिल्में जो कभी पूरी नहीं होती और वो नाटक जिनका अंत कभी किसी को नजर नहीं आया। बीवी की कमाई पर ऐश करने वाले और बीवी से ही डरने वाले जौनी चौहान, शहर के लड़के-लड़कियों को इकट्ठा करके भांडबाजी करने का शौक रखते थे। उन्हे वास्तव में यह कार्य प्रिय था या वह किसी और मकसद से यह सब करते थे, इसका फैसला आप लेख को पढ़कर अंत में कीजिएगा। 
  
           चौहान साहब शहर के युवाओं को फिल्मी दुनिया के हसीन सपने दिखाकर अपनी मंडली में भर्ती किया करते थे। हर रोज कोई भी धर्मशाला या किसी भी ठिकाने पर अपना दरबार लगा लिया करते थे। उनका दरबार युवाओं को सुनहरी फिल्मी दुनिया का दरवाजा नजर आता था और यह बात स्वयं चौहान साहब अपने मुंह से ही हर रोज कहा करते थे। शहर के कुछ युवा अपने बलबूते बॉलीवुड में अपना मुकाम बना चुके थे। पूरा शहर उन्हें पहचानता था। बस! चौहान साहब के लिए इतना ही काफी था। अपनी बातों के लिए मसाला उन्हीं होनहार युवाओं से उन्हें मिलता था। वो अक्सर कहते थे, "उस लड़के को मैने ही फिल्मों में चांस दिलवाया है। तुम्हें भी दिलवा सकता हूं।" ये वाक्य सदा उनकी जुबान पर रहता था। शायद नींद में भी उन्हें अपना दरबार ही दिखाई देता होगा।
      अपने दरबार में चौहान साहब कर्म करने की महत्ता पर हर रोज भाषण जैसा कुछ दिया करते थे। मेहनत और लगन पर भी सुंदर विचार प्रस्तुत किया करते थे। कहते थे कि दिल लगाकर एक्टिंग किया करो। एक्टिंग वो चीज जो सिर्फ काम करने से ही आ सकती है। इसलिए काम करना बहुत ही जरूरी है।
                    वो समझाते थे कि अगर काम करना है तो सबसे बड़ी जरूरत है 'लड़की'। क्योंकि अगर लड़की ही नहीं हुई तो नाटक या फिल्म पूरी कैसे होगी। इसलिए हर वक्त लड़कों से यही कहते थे, "बेटा लड़कियां लेकर आओ।" जब महिला कलाकार उनके दरबार में पहुंचती तो सबसे पहले उसे कातिल निगाहों से घूरकर देखते। उसके बाद उसे कहते कि फिल्म लाइन में आजकल बोल्ड किरदार ही ज्यादा चलते हैं। इसलिए अगर आपको हमारे साथ काम करना है तो 'बोल्ड' होना पड़ेगा। अब कितना बोल्ड होना है ये बात चौहान साहब अपने मन में ही रखते थे।
            जो लड़की उनकी बात नहीं मानती वह लौट जाती और जो  मान जाती उसे अपने घर बुलाकर एक्टिंग पर चर्चा करते। कई बार तो कुछ ऐसा भी हुआ, जो किसी की समझ में ही नहीं आया। हुआ ये कि जो महिला कलाकार शुरू में 'बोल्ड' होने के लिए तैयार हो जाती, वह दो दिन बाद ही गायब हो जाती यानि आना ही बंद कर देती। तब सवाल यह उठता कि आखिर वह क्यों नहीं आई।
       कई कलाकारों के मन में सवाल उठता कि चौहान सर ने ऐसा क्या कर दिया जो वो आई ही नहीं। यह बात तो रहस्य ही है। जब वो नहीं आती तो चौहान साहब अपने गुर्गे यानि भविष्य में आनी वाली फिल्म के हीरो से उसे फोन करवाते कि आई क्यों नहीं। सबसे खास बात यह थी कि काम करने की इच्छुक महिला कलाकार को अपने घर पर जरूर बुलाया करते थे। ऐसा तो कभी हुआ  ही नहीं था कि कोई भी उनके घर पर न आई हो। दरसअल उनकी बीवी एक स्कूल में पढ़ाती थी और उनके बच्चे दूसरे शहर में पढ़ते थे। बस, उनका घर अधिकतर खाली रहता था और चौहान मियां हिरोइनों को बुला लेते। घर पर बुलाने के बाद चौहान साहब उसे रोमांस के सीन की रिहसल करवाना शुरू कर देते। आगे क्या होता था यह भी रहस्य ही है। कई बार एक्टिंग की गहराई समझाने के लिए महिला कलाकार को ब्लू फिल्म भी दिखा डालते और समझाते कि ये भी एक्टिंग ही है। साथ में उसे ऐसी बातों की भेल-पूरी खिलाते कि जैसे बॉलीवुड की आने वाली हिरोइन वो ही है। तब वो मन ही मन खुद को फिल्म फेयर जीतते हुए देखती और उस सपने को पूरा करने के लिए चौहान साहब को पूरा सहयोग देने का मन बना डालती।
दिन ऐसे ही बीत जाते। कुछ समय के बाद वही हिरोइन पति और बच्चे के साथ बाजार में नजर आती। एक बात और, चौहान साहब हिरोइनों की शादी में जरूर जाते थे और मौका मिलने पर नई नवेली दुल्हन से कहते, "तेरी शादी हो गई है। अब खूब मस्ती मारना।"
जब उन्हें मन-मुताबिक हिरोइन नहीं मिलती तो वह कहते, "यार ये भी कोई बात है। मैं  मेहनती लड़की के बिना फिल्म  कैसे बना सकता हूं। एक और प्रियंका चोपड़ा है, जो डायरेक्टर के कहने पर हॉट सीन देने के लिए तैयार हो जाती है तो दूसरी और हमारे शहर की लड़कियां हैं जो कुछ भी करने को तैयार नहीं हैं। ऐसे में फिल्में तो बन ही नहीं सकती।
बस इन्ही परेशानियों की वजह से चौहान साहब फिल्में नहीं बना पा रहे हैं वरना अब तक तो दूसरा बॉलीवुड अपने शहर में बसा चुके होते...

Thursday, September 23, 2010

रंगमंच से गपमंच की ओर

फट्टर साहब को बातें करने वो चस्का था कि औरतें भी शरमा जाएं। शाम होते ही अपने घर में बने दफ्तर पहुंचते और कतिपय मित्रों का इंतजार करते। पेशे से वकील थे इसलिए दिन कोर्ट में बीतता और शाम दफ्तर में। उनका दफ्तर बातों का अड्डा ज्यादा नजर आता था। मित्रों के साथ कैरम, बीड़ी, सिगरेट, शराब और बातें। ढेर सारी बातें। बस उन्हें और कुछ नहीं चाहिए था।

फट्टर साहब शौकिया तौर पर रंगमंच भी करते थे। रंगमंच के अनुभवों को अपने मित्रों को सुनाना और पीठ पीछे चुगलियां करना उन्हें खूब भाता था और यदि इस दौरान मदिरा के प्याले भी आपस में टकरा जाएं तो क्या कहने। मानों उस समय तो धरती पर सबसे खुश किस्मत इंसान फट्टर साहब ही होते थे। मदिरा के नशे में चूर फट्टर साहब बात करते तो हाथों को ऐसे हिलाते जैसे कोई डायलॉग बोल रहे हों। डायलॉग खत्म होने पर जब उनके मित्रों के मुख से "वाह भाई साहब क्या बात है" निकलता तो फट्टर साहब के चेहरे पर वो नूर झलकता जैसे उन्होंने कोई तीर मार दिया हो। मदिरा की महफिल को सजाने का कार्य भी वह निराले अंदाज करते। प्रत्येक गपमंच के सदस्य से कुछ पैसे वसूलते और खुद भी पैसे मिलाकर मदिरा मंगवाते। यदि कोई पीने से इन्कार करता तो उसे पीने के लिए प्रेरित करते।

"तुम्हारा पब्लिक रिलेशन बहुत कमजोर है। उसे सुधारने के लिए तुम्हें पीनी चाहिए।"  अभिनय में भावों की तीव्रता के लिए तु्म्हें पीकर रिहर्सल करनी चाहिए।"  इन वाक्यों द्वारा वह शराब पीने के फायदे समझाते।

बातें करने का स्वाद उन पर इस कदर भारी था कि रिहर्सल के लिए आए कलाकारों भी उन्हें सुध न रहती। ये वही कलाकार होते थे जो रंगकर्मी बनने की इच्छा से आते थे। परन्तु समय बीतने के साथ-साथ समझ  जाते कि माजरा कुछ और ही है। यहां रंगमंच नहीं गपमंच था जिसे फट्टर साहब ने बड़े प्यार से अपने हाथों से तैयार किया था।

ऐसा नहीं था कि वे सिर्फ बकबाजी में ही लगे रहते थे। उन्होंने कुछ नाटकों का सफलतापूर्वक मंचन किया था। वह स्वयं मंच पर अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन कर चुके थे। परंतु समस्या यह थी कि वह गपमंच से पीछा नहीं छुड़ा पा रहे थे और न ही छुड़ाना चाहते थे। उनकी कोशिश रहती थी कि कलाकारों को भी गपमंच की टोली में शामिल किया जाए। परन्तु बहुधा ऐसा न हो पाता था और यह बात उन्हें नागवार गुज़रती थी। जो गपमंच की टोली में शामिल न होता वह उन्हें फूटी आंख न सुहाता था। परिणामस्वरूप नए कलाकार आते और पुराने होकर लौट जाते तथा फट्टर साहब उनकी चुगलियों में लग जाते।

गपमंच को ज़िंदा रखने के लिए फट्टर साहब हर समय नई भर्ती की कोशिश में रहते। इसीलिए कैरम खेलते समय जब कोई स्ट्राईकर से शॉट लगाता तो उसकी ऐसी तारीफ करते कि नया नौसिखिया खिलाड़ी भी खुद को चैंपियन समझने की भूल कर बैठता।

फट्टर साहब को सलाहें देने में आनंद की अनुभूति होती थी। इसलिए मौका मिलते ही सलाह देने में चूकते नहीं थे। वे हर वक्त इसी कोशिश में रहते कि सामने वाले को किसी तरह प्रभावित किया जाए इसीलिए अपनी बातों को तहजीब की ऐसा तड़का लगाते जैसे शहर के सबसे बड़े भद्रपुरूष वे ही हों। परंतु यह भद्रता का मात्र ढोंग होता था। वास्तव में वह फायदा देखकर ही इज्जत से बात किया करते थे। वरना अंट-शंट बकने में वह आगे रहते थे। सबसे अधिक इज्जत वह मदिरा पिलाने वाले को ही देते थे। यदि कोई उन्हें मुफ्त की मदिरा पिला देता तो वह उनके लिए बीवी से बढकर प्रिय हो जाता। फिर तो हर शाम उन्हें अपने उसी सच्चे दोस्त की याद सताती।

गपमंच से गैरहाजिर रहने वालों से वह नाराज रहते और लौट आने पर किसी रूठी हुई प्रेमिका की तरह की पेश आते। लेकिन मनाए जाने पर मान भी जाते। पर उन्हें मनाना आसान नहीं होता था। चापलूसी करने और दारू पिलाने पर ही गुस्सा थूकते थे।

यहां इस बात पर गौर करना बहुत ही जरूरी है कि जब कोई गपमंच को अलविदा कहता तो फट्टर साहब इसे किसी धोखे से कम नहीं समझते और प्रतिशोध की अग्नि में जल उठते। फिर तो कई दिनों तक उनकी शाम उस धोखेबाज़ की बुराईयों में ही बीतती थी। फट्टर साहब का सफर आज भी जारी है। रंगमंच से गपमंच की ओर। इसलिए कभी आप उनसे मिलने जाएं तो ध्यान रखियेगा वो धोखेबाज आप भी हो सकते हैं।

(सत्य घटनाओं पर आधारित)

चुटकुले और हंसगुल्ले (कुछ हल्के-फुल्के पल...)

कुछ पुरानी यादें... (कविताएं, गीत, भजन, प्रार्थनाएं, श्लोक, अनूदित रचनाएं)

पहेली की दुनिया - मेरी पहेलियां... Paheli ki Dunia - Meri Paheliyaan...